


मन—दो अक्षरों का यह छोटा-सा शब्द, सुनने में जितना सहज और कोमल लगता है, अनुभव में उतना ही जटिल, अनगिनत रहस्यों से भरा, और चेतना की गहराइयों में उतरने वाला प्रतीत होता है। यह शब्द न केवल वर्तमान, अतीत और भविष्य को अपने भीतर समेटे हुए है, बल्कि यह स्वप्नों, अनुभूतियों और अज्ञात लोकों की यात्रा का वाहक भी बन जाता है।
मन की अनुभूति यदि स्वप्न के माध्यम से भी हो, तो वह केवल भ्रम नहीं—बल्कि किसी सूक्ष्म सत्य का संकेत होती है। मन का मान—अर्थात उसकी गरिमा या उसकी स्थिति का सटीक भान पाना—कल्पनाओं के भी परे है।
मन पर अनादिकाल से मनीषियों, ऋषियों और मनोवैज्ञानिकों ने चिंतन और मनन किया। वेदों से लेकर आधुनिक न्यूरोसाइंस तक, मन को समझने की चेष्टा की गई—कभी उसे चेतन और अवचेतन की परिभाषा में बांधने की कोशिश की गई, तो कभी थ्योरी और मॉडल्स के माध्यम से समझने का प्रयास किया गया। फिर भी, मन का आत्मस्वरूप आज भी अनजान ही है।
मन के विविध रंग
कभी मन का न लगना।
कभी मन का उदास होना।
कभी उल्लास से भर उठना।
कभी शांत, कभी अशांत।
कभी वेदना में डूबा हुआ, तो कभी "मन मयूरी" की तरह नृत्यरत।
मन की यह श्रृंखला अंतहीन है। जैसे ही हम इसे परिभाषित करना चाहते हैं, यह हमारी पकड़ से फिसल जाता है। मन, हर प्रयास पर मुस्कुराता हुआ, अपनी अगली परत और जटिलता दिखा देता है।
न्यूरोसाइंस ने मन के रासायनिक और तंत्रिकीय आधारों को टटोलने का भरसक प्रयास किया है। परंतु मन केवल जैविक तत्वों का मेल नहीं, वह चेतना की एक जीवंत छाया है। यही कारण है कि विज्ञान के सबसे परिष्कृत औजार भी मन के रहस्य के आगे असहाय दिखते हैं।
आधुनिक युग की विडंबना
AI और सुपरकंप्यूटर से लैस आधुनिक मानव ने सोचा था कि वह मन को समझ लेगा, शायद नियंत्रित भी कर लेगा। किंतु जब वह विफल हुआ, तो उसने “नया मन” बनाने का संकल्प ले लिया। ठीक उसी तरह जैसे ऋषि विश्वामित्र ने त्रिशंकु स्वर्ग का निर्माण किया—प्रकृति के सिद्धांतों की अनदेखी करते हुए।
मन की केमिस्ट्री
मन की रसायनशास्त्र बहुत सीधी है—जितने जटिल रासायनिक क्रियाकलाप, उतना ही जटिल मन। जितनी सरलता, उतना ही निर्मल मन।
कुछ उदाहरण इस समझ को और गहरा करते हैं
बच्चे का मन – निश्चल और निर्मल
गोपी का मन – प्रेम और आह्लाद से ओतप्रोत
प्रेयसी का मन – समर्पण और मर मिटने की भावना
कुटला का मन – वासना और लोभ
संत का मन – क्षमा और शांति
राजनेता का मन – रणनीति और षड्यंत्र
इन सबके बीच एक बात स्पष्ट होती है—जितना सहज मन होगा, उससे जुड़ा भाव भी उतना ही सरल और शुद्ध होगा। जटिल भाषा या भाव मन को और उलझा देते हैं, जबकि सरलता ही मन को समझने का प्रथम सोपान है।
तो फिर मन को जाना कैसे जाए?
यह असंभव नहीं, बस साधना का विषय है। हमारा प्राचीन दर्शन सदियों से "मन की उपासना" करता आया है—बस हमने स्वयं उससे दूरी बना ली।
मन को जानने के कुछ सहज उपाय
शांत बैठें, मौन का अभ्यास करें
प्रकृति से जुड़ें
आत्मकेन्द्रित हो जाएं, लेकिन आत्ममुग्ध नहीं
बच्चों जैसी निष्कलंक भावनाओं से मन को रंगें
धैर्य और संतुलन बनाए रखें
ध्यान का अभ्यास करें—धीरे-धीरे, बिना दबाव के
ध्यान के आरंभ में मन बेचैन होगा। जैसे समुद्र की लहरें बार-बार आकर लौटती हैं, वैसे ही विचार उठते रहेंगे। लेकिन जैसे-जैसे अभ्यास गहराएगा, यह हलचल शांत होने लगेगी। आप मन की नज़दीकी को महसूस करने लगेंगे—उसकी भाषा को सुनने के लिए उत्सुक होंगे। मौन में रमण होने लगेगा।
कुछ समय बाद—जब मन की परतें हटेंगी, तो वह दर्पण की तरह साफ़ और निष्कलंक दिखाई देगा। और उस दर्पण में आप ईश्वर के प्रतिबिंब को देखेंगे—not your ego, but the divine presence.
मन केवल विचारों का केंद्र नहीं, वह ईश्वर के अंश का संवाहक है। उसमें परमसत्ता का बोध है।
मन को जानने के लिए आपको रहस्यवाद से गुज़रना पड़ेगा, क्योंकि वह स्वभाव से ही रहस्यमय है। पर यदि आपने एक बार इसे शांति और मौन से स्पर्श कर लिया—तो आप सृष्टि के उस बिंदु से मिलेंगे, जहां आप और परमात्मा के बीच कोई भेद नहीं बचेगा।